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आलोचना

कला और वेदना के रोमानी कथाकार : निर्मल वर्मा

अभिजीत सिंह


" कला इसलिए जरूरी है कि आदमी दुनिया को समझ सके और बदल सके। लेकिन कला इसलिए भी जरूरी है कि उसमें जादू (आकर्षण) अंतर्निहित होता है।"1 - अंर्स्ट फिशर

निश्चय ही निर्मल के लिए कहानी (कला) की यही जरूरत रही होगी या कहें कि - आदमी के लिए - 'दुनिया को समझने' के सरोकार से इनकी कहानियाँ निरंतर जुड़ी रही हैं। क्योंकि 'दुनिया' सिर्फ किसानों, अंचलों या पूँजीवाद और उपनिवेशवाद को व्याख्यायित करने तक ही नहीं सिमटी। अज्ञेय के 'शेखर' ने 'दुनिया' को कहाँ तक विस्तार दिया यह कहने की जरूरत नहीं। कहना न होगा कि निर्मल की कहानियों में भी 'परिंदे', 'चीड़ के जंगल', 'प्यानो की धुन' और 'सूखा' कहीं न कहीं परिवेश के साधन से अंतस के साध्य को विश्लेषित करने का प्रयास है।

निर्मल वर्मा की कहानियाँ स्वातंत्र्योत्तर हिंदी कहानी में एक महत्वपूर्ण उपलब्धि हैं। निर्मल नई कहानी के एक ऐसे विशिष्ट कथाकार हैं जिन्होंने कहानी को एक कलात्मक सार्थकता प्रदान की है। उनकी कहानी पुराने या नए अर्थों में रूढ़ कहानी नहीं है। दरअसल निर्मल वर्मा की कहानियाँ जीवन की वे अनुभूतियाँ हैं जिन्हें एकांतिक अनुभूति कहते हैं। समाज के स्थूल और बहुमुखी यथार्थ को ठोस वास्तविकताओं के चित्रण के विपरीत निर्मल की चेतना आधुनिक संदर्भों में निरंतर अकेले होते जा रहे व्यक्ति के अंतर्मन की ओर मुड़ी है। उनकी कहानी-कला में 'यथार्थ' के लिए अवकाश नहीं - ऐसा नहीं कहा जा सकता। यथार्थ के जिस स्तर को वे पकड़ते हैं और जिस वातावरण की बात वे कहानियों में करते हैं, उस स्तर और वातावरण में डूब और भीग कर वे लिखते हैं। फलस्वरूप उनका पाठक उनके शब्दों से गढ़ी अनुभूति से अबाध रूप में एकाकार होता है। कई बार यह भ्रम पैदा किया जाता है कि निर्मल 'भारतीय' संवेदना के कथाकार नहीं हैं। यानी उनकी कहानियों में भारतीय परिवेश, समस्या और वातावरण का अभाव मिलता है। रामदरश मिश्र की पीड़ा उनके शब्दों में साफ झलकती है - "निर्मल की कहानियों की यह दुनिया हममें निश्चय ही अपने जाने-पहचाने भारतीय सामाजिक परिवेश का अहसास नहीं जगाती। गाँव या शहर के उस आदमी का साक्षात्कार नहीं होता जिसे हम अपने भीतर रोज जी रहे हैं।"2 मिश्र जी द्वारा अपेक्षित 'भारतीय सामाजिक परिवेश' कुछ अस्पष्ट सा रह जाता है क्योंकि अगर हम 'भारतीय सामाजिक परिवेश' की वृहत्तर व्याख्या की ओर रुख करेंगे तो हमें समाजशास्त्रीय अध्ययन के कई स्तरों से गुजरना पड़ सकता है। रामदरश मिश्र की यह अपेक्षा आचार्य भामह के 'शब्दार्थौ सहितौ काव्यं' की तरह काफी व्यापक है जिसमें एक निश्चित बिंदु को खोजने में काफी कठिनाइयाँ हैं। लेकिन अगर हम विजयमोहन सिंह के निम्न कथन को देखें तो निर्मल की कहानियों में 'अभारतीयता' के उद्गम बिंदु साफ-साफ दिखाई पड़ेंगे - "उनकी स्मृतियाँ केवल लियोनाल्ड वुल्फ, जेम्स ज्वायस और बेंजामिन फ्रेंकलिन से जुड़ी हैं। व्यास, बाल्मीकि, कालिदास तो क्या - सूर, तुलसी, कबीर और जायसी से भी वे कहीं नहीं जुड़े हैं। तभी अपने देश वापसी पर उन्हें सब कुछ स्मृतिहीन और मृत लगता है। ...अपने देश के पर्वतीय शहर, स्वीमिंग पूल और हवा में सरसराते चीड़ वन तो उन्हें नजर आते हैं, लेकिन जो व्यापक गरीबी तथा दरिद्रता, भ्रष्टाचार और बेचैनी है - वह कहीं नहीं दिखाई पड़ती।"3 दरअसल हम जब भी किसी कहानीकार या रचनाकार पर बात करते हैं तो प्रचलित सत्यों के उद्घाटन की अपेक्षा ही करते हैं। हम ये समझने की कोशिश ही नहीं करते कि हर रचनाकार के अभिव्यक्ति की तकनीक अलग-अलग होती है। निर्मल कहीं से प्रेमचंद, रेणु या यशपाल की तरह के लेखक नहीं थे और उनसे इसकी आशा करना उनकी रचनाधर्मिता के साथ अन्याय करने के बराबर होगा। यथार्थ के जंगल में भटकते हुए हम संवेदनात्मक अभिव्यक्ति की कला को हाशिए पर ढकेलने लगते हैं। संवेदना या भावना ही निर्मल की कहानी का साध्य है - तभी तो उनकी कहानियों में घटनाओं और पात्रों से महत्वपूर्ण स्थितियाँ होती हैं, वातावरण होता है। नामवर जी की बात पर ध्यान दें तो पता चलेगा कि निर्मल की एकात्मीयता का स्तर यथार्थ के माध्यम से भावना नहीं बल्कि भावना के माध्यम से यथार्थ का था। नामवर सिंह के अनुसार निर्मल वर्मा की कहानियों में - "निसर्ग एक है जिसमें सारे भेद सहज ही मिट जाते हैं। एक हृदय है जो तमाम चीजों को रागात्मक संबंध से जोड़ देता है। कलाकार का एक स्पर्श है जो सारे अनमेल तत्वों को एक 'रूप' में रच देता है।" 4

अगर नामवर जी के शब्द उधार लूँ तो निर्मल वर्मा की कहानी 'परिंदे' को 'नई कहानी की पहली कृति'5 भी कह सकते हैं। 'परिंदे' कहानी में निर्मल की मनोवैज्ञानिक सूझ-बूझ भी काफी उभर कर सामने आई है। कहानी की नायिका लतिका अपने प्रेमी - कैप्टन नेगी - की मृत्यु के बाद एक पहाड़ी स्कूल में अकेलेपन की जिंदगी गुजार रही है। अपने सहकर्मी डॉ. मुकर्जी के काफी प्रेरित करने पर भी वह दूसरा संबंध नहीं बना पाती, अपनी स्थिति से निकल नहीं पाती। लतिका ही नहीं मि. ह्युबर्ट, मुकर्जी आदि सभी पात्रों की अपनी एक व्यक्तिगत परिस्थिति है, जिसका समाधान सभी चाहते हैं, लेकिन न ढूँढ़ पाने के कारण एब्सर्ड के शिकार हैं। सभी का जीवन एक ही प्रश्न का उत्तर खोज रहा है - 'हम कहाँ जाएँगे?' यही वह प्रश्न है जो कहानी के केंद्र में शुरू से अंत तक बना हुआ है और बिना किसी प्रत्यक्ष या ठोस समाधान के बना ही रह जाता है।

दरअसल निर्मल के पात्रों को अनुपस्थितियाँ बहुत कचोटती हैं। वे इनसे लगभग शापग्रस्त से दिखाई पड़ते हैं। 'परिंदे' की शुरुआत में निर्मल अपने पात्रों की इस चिंता में सहभागी होकर उसे स्वीकारते हैं और कैथरीन मैन्सफील्ड की पंक्तियाँ उद्धृत करते हैं - 'Can we do nothing for the dead? And for a long time the answer had been - nothing!'

इस संदर्भ में डॉ. वीरभारत तलवार का कहना है - "दूसरों से न जुड़ पाने, अकेले रह जाने - अलगावबोध की - की स्थिति को निर्मल ने अपनी कहानियों का मुख्य विषय बनाया है।"6 'सूखा' कहानी के नायक का भी तो परिवार बिखर चुका है। वह भी आंतरिक सूखे का शिकार है। एक सेमिनार में उसका परिचय एक लड़की से होता है, जिससे उसे आत्मीयता मिलती है। वह उसके घर दोबारा लौट आना चाहता है, पर इसी बीच वह मर जाता है।

मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी निर्मल की कहानियों की परिस्थितियाँ, परिवेश, वातावरण, पात्र, तथा पृष्ठभूमि सभी बड़े बेजोड़ बनते हैं। दरअसल सूक्ष्म निरीक्षण प्रकृति के चित्रण में, हर महीने या मौसम के आकाश, धूप रंग आदि के बारे में, नींद, बातचीत के टोन, रोशनी के बिंब, सन्नाटे, डर, गंध, हवा, घर के अंदर या बाहर के वातावरण आदि से लेकर व्यक्तियों की मनोवृत्तियों, मनोभावों, तथा उनके ऐंद्रिय बोध तक के चित्रण में दिखाई देता है। 'कव्वे और काला पानी' कहानी में हम मानवीय आदतों और मनोभावों का भी सूक्ष्म निरीक्षण देख सकते हैं कि कैसे रात के वक्त देहाती इलाकों या पहाड़ी कस्बों में लंबे रूट पर चलने वाली बसों से गुजरने पर - "कभी किसी बस के गुजरने के बाद मास्टर साहब किताब से सिर उठाकर घड़ी को देखते और लंबी साँस खींचकर कहते, 'यह भुवाली की बस है।' या कुछ देर बाद जब दो बार बस की पों-पों बजती, वे कहते, 'यह रामनगर जा रही है।'" निर्मल की कहानियों में इस तरह का मनोवैज्ञानिक चित्र कहीं न कहीं अज्ञेय के 'रोज' (गैंग्रीन) जैसी कहानी की याद दिला देता है जिसमें घड़ी के हर घंटे के खड़कने के साथ मालती यंत्रवत उसका समय भी बताती चलती है। दरअसल निर्मल अपनी कहनियों में जो वातावरण क्रिएट करते हैं वही इस तरह की यांत्रिकता को जन्म देती है - अन्यथा मनोविश्लेषणात्मक संतुलन उनकी कथा योजना में सराहनीय है। कथा का कोई भी पात्र कहीं भी अनायास कुंठित हो या परिवेश ज्यादा तनावग्रस्त हो यह निर्मल को स्वीकार्य नहीं। जहाँ पात्रों के कुंठा के चित्रण की आवश्यकता पड़ी भी है वहाँ निर्मल ने उसे 'डिस्क्रिप्टिव' न बना कर सिर्फ 'मेंशन' भर कर दिया है। शायद यही कारण रहा है कि 'परिंदे' कहानी में ह्यूबर्ट को कहानी के अंत में शराब पीकर लड़खड़ाते (टूटते) हुए दिखाया गया है। लतिका ने तो जैसे अपने दुख को आत्मसात ही कर लिया है। लतिका की स्थिति का अब साधारणीकरण हो चुका है, डॉ. वीरभारत तलवार के शब्दों में - "लतिका का अकेलापन उसकी स्थिति भर है, ऐसी समस्या नहीं जिससे वह पीड़ित दिखाई देती हो।"7 कायदे से यहाँ इस बात पर ध्यान दिया जाना चाहिए कि निर्मल अकेलेपन या अलगाव के नाम पर 'कला के लिए कला' का प्रसार नहीं कर रहे थे। उनकी कहानियों में व्याप्त आधुनिक चेतना के मर्म को पकड़ने की जरूरत है। दरअसल बूर्ज्वा व्यवस्था जिस तरह मनुष्यों के बीच अलगाव और अकेलेपन की भावना पैदा करती है, उसी तरह उनसे उनकी अस्मिता-आत्मबोध को भी छीन लेती है। ये दोनों ही समस्याएँ आधुनिक पश्चिमी समाज में पैदा हुई थीं और उन्हीं की चिंता का प्रत्यक्ष विषय बनीं। ये समस्याएँ भारतीय समाज में भी हैं - खासकर महानगरों में - हालाँकि उतने तीव्र रूप में नहीं। हिंदी में इनकी चर्चा स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद ही शुरू हुई। निर्मल ने जैसे अकेलेपन के सवाल को अपनी कहानियों में उठाया, उसी तरह अस्मिता के सवाल को भी उठाया। 'धूप का एक टुकड़ा' कहानी में पति से अलग हो चुकी स्त्री अपने अकेलेपन में जी रही है। वह एक मूक सहानुभूति की तलाश में है। पार्क में एक दूसरे अकेले व्यक्ति से उसकी मुलाकात होती है। दोनों में बातचीत होती है लेकिन वे एक दूसरे के अकेलेपन को दूर करने के बजाए उसे और बढ़ा देते हैं। इस कहानी की नायिका को विवाह के आठ वर्षों बाद यह महसूस होता है कि पति के साथ उसके संबंधों में कोई जीवित अनुभूति नहीं रही। अपने संबंधों की संवेदनशीलता के आदत में बदलते जाने को जिस तरह महसूस करती है - कहना न होगा कि वह कितनी खतरनाक स्थिति में पड़ती जा रही है। वीरभारत तलवार के उपर्युक्त कथन के प्रकाश में देखें तो 'परिंदे' की लतिका के लिए भी तो कैप्टन नेगी एक आदत में बदल चुका होता है, जिसे काफी कोशिश करने पर भी डॉ. मुकर्जी बदल नहीं पाते।

'परिंदे' कहानी में पात्रों को अपनी चेतना से भी जूझते हुए दिखाया तया है। सभी पात्र अपनी वास्तविक चेतना को परे हटाकर एक कृत्रिम चेतना या छद्म चेतना के सहारे अपना जीवन-यापन करते हैं और उनकी यह छद्म चेतना ही उन्हें बार-बार अपने अतीत से साक्षात्कार कराती है।

जैसा कि हम पहले भी बात कर चुके हैं कि निर्मल वर्मा की कहानियों में यथार्थबोध सूक्ष्म रूप में विद्यमान रहता है जिसे अदृश्य यथार्थ की संज्ञा दी जा सकती है, क्योंकि इसे कुछ विशेष क्षणों में ही अनुभव किया जा सकता है एवं परखा जा सकता है। इस संबंध में परमानंद श्रीवस्तव का कहना है - "निर्मल वर्मा की यथार्थ संवेद्यता आत्मचेतना पर आधारित होने के कारण अधिक गहन और तीव्र है।"8 'सूखा' भी निर्मल वर्मा की एक ऐसी ही कहानी है जिसमें ये सारी विशेषताएँ मिलती तो हैं लेकिन इस कहानी पर उतना ध्यान नहीं दिया गया जितना यह कहानी डिजर्व करती है। 'सूखा' अस्तित्ववादी आग्रहों से ग्रसित आधुनिक युग के तनाव, नीरसता और अकेलेपन से जूझते व्यक्तित्वों के अंदर 'सूनेपन' के पनपने की दास्तान बयान करती है। यह मूलतः आधुनिक युग में टूटती हुई मानसिकता और टूटते हुए जीवन मूल्य को उजागर करती है। कथा का आरंभ एक सेमिनार की तैयारी से होता है। शकुन कॉलेज की नई लेक्चरार है जो सेमिनार की तैयारी में पूरी तरह व्यस्त है। इस सेमिनार में डॉ. दामले और डॉ. सेन के अतिरिक्त विश्व प्रसिद्ध डॉ. देव को भी अपना पर्चा पढ़ना है। इस सिलसिले में जब शकुन डॉ. देव के संपर्क में आती है तो यह समझ पाती है कि नाम और शोहरत तो उनके पास काफी है, लेकिन जीवन-मूल्य उनके जीवन से नदारद है। कथा साहित्य की उनकी अनेक पुस्तकें विदेशी और भारतीय भाषाओं में अनूदित हो कर ख्याति प्राप्त कर चुकी हैं लेकिन पिछले दस वर्षों में उन्होंने कुछ भी नहीं लिखा है। इस ठहराव को उन्हीं के शब्दों में समझा जा सकता है। वे शकुन से टाईपराइटर के बारे में कहते हैं - 'कोई बात नहीं, वह बेचारी तो मशीन है... कुछ लोग तो बरसों अटके रहते हैं।' अपने आंतरिक जीवन के सूखे से त्रस्त वे अपने को दूसरे से संबद्ध करते-करते भी भीगी पलकों की अपनी दुनिया में लौट आते हैं क्योकि भीगी पलकों की दुनिया उनकी अपनी निजी है। संवेदनशील भावों पर यांत्रिकता के हावी हो जाने के कारण व्यक्ति के आंतरिक जीवन में बिल्कुल सूखा पड़ जाता है। शकुन भी इस सूखे का शिकार है। तभी तो अपनी माँ से खुद की तुलना करते हुए वह कहती है - 'मैं अपनी माँ को देखती थी, जिन्होंने दूसरी क्लास से आगे कुछ भी नहीं पढ़ा था - और उनके पास कुछ ऐसा था, जिसके सामने मैं अपने को बिल्कुल वंचित पाती थी। कहीं कुछ गलत था, लेकिन मुझे पता नहीं चलता था वह क्या है?' कहानी में रजत भी एक पात्र है जो उन स्थानों का भ्रमण करने जाता है जहाँ पर सूखा पड़ा है, लेकिन यहाँ तो शकुन और डॉ. देव का समूचा जीवन ही सूखे से ग्रस्त हो चुका है। चीनी भिक्षु द्वारा सत्य का मार्ग पूछने आई वृद्धा को दिया गया उत्तर - 'वही रास्ता है, जहाँ से तुम आई हो।' - तो ये उत्तर डॉ. देव पर भी लागू होता है। जिस जीवन से वे कट गए हैं सत्य का मार्ग कहीं उसके बीच से ही हो कर गुजरता है। उससे कटकर हताशा और निष्क्रियता का सूखा - जिसे वह स्वयं बाहर के सूखा के विरुद्ध अंदर का सूखा कहते हैं - तो वही अंदर का सूखा उनकी या किसी और की भी नियति हो सकती है। डॉ. देव जब पार्टी में पहुँचते हैं तो वहाँ पर वे खुद को काफी मिसफिट पाते हैं, लेकिन शकुन द्वारा साथ दिए जाने पर वे अपने जीवन के अनेक पलों को याद करते हैं और शकुन के साथ बाँटते हैं। शकुन के साथ डॉ. देव को काफी चैन मिलता है। आंतरिक भावबोध से शून्य हृदय के बंजर धरातल पर रोमानी भावबोध रूपी वर्षा की हल्की ललक भी उसके अंदर एक हलचल पैदा कर देती है। डॉ. देव एवं शकुन की स्थिति भी बिल्कुल यही है। जंगल की सैर बस से करते समय जब डॉ. देव, शकुन के हाथों को पकड़ते हैं तो उसे ऐसा लगता है मानों खून की एक लहर उसके देह को सरसराते हुए ऊपर उठ गई हो और इसके पश्चात उसे पता भी नहीं चलता कि डॉ. देव का हाथ घंटों उसके हाथों में पड़ा रहा। वह कहती भी है - 'जब मैं उस शाम के बारे में सोचती हूँ, वह क्षण हमेशा लौट आता है - नीरव, उत्सुक, चमकदार - जैसे पिछले दो दिनों से वो मुझसे कुछ कहना चाह रहे थे - और जो मैं उनसे छिपाती आ रही थी - वह दोनों किसी जादूगरनी के पत्ते सा हमारे सामने खुल गया था...।' लेकिन डॉ. देव का संपूर्ण जीवन आंतरिक सूखा से इस प्रकार ग्रसित है कि इस निर्मल जलधारा को चाह कर भी स्पर्श नहीं कर पाते - 'आप क्या सोचती हैं ...सूखा क्या सिर्फ बाहर पड़ता है?' और कुछ दिनों बाद इसी सूखे में उनकी मृत्यु होती है।

हम देख सकते हैं कि निर्मल वर्मा की कहानियों के कथानक संपूर्ण संवेदना को उद्घाटित करने में पूर्णतः सक्षम है। यहाँ युगीन संक्रमण के दौर में एक ओर 'टेरर' है तो दूसरी ओर अकेलेपन की ठंडी 'खामोशी'। गलीज जिंदगी जीने की विवशता व्यक्ति के आंतरिक भाव-बोध को शून्य बना देती है जिससे उसका संपूर्ण जीवन एक सूखे में लटका रह जाता है। लेकिन निर्मल की कहानियों में व्यक्त ये विवशता, चीख और टेरर कुछ आलोचकों के लिए प्रश्नचिह्न की तरह है। विजयमोहन सिंह लिखते हैं - "आखिर यह किस चीज का आतंक तथा अभिशाप है जो सामान्य चलते-फिरते, हँसते-बोलते, जिंदा इनसानों को लेखक की 'दिल की दुकान में' ले जाकर 'मुरदा' 'चीथड़ों' और 'हड्डियों' में बदल देता है?"9 कायदे से यहाँ ध्यान दिया जाना च।हिए कि विजयमोहन सिंह के शब्द निर्मल वर्मा पर नहीं बल्कि उन परिस्थितियों की तरफ उँगली उठाते हैं जो लेखक को वैसा वर्णन करने को प्रेरित अथवा विवश करते हैं - और अंततः विजयमोहन जी इसका उत्तर पाते हैं 'यूरोप की युद्धोत्तर मनःस्थिति' में - "दरअसल, निर्मल वर्मा यूरोप की युद्धोत्तर मनःस्थिति या संवेदना के कथाकार हैं। इसलिए उनकी सबसे बड़ी चिंता इन 'दो संस्कृतियों की बीच' की स्थिति को समझने की और उसमें अपने को 'स्थित' करने की है। यही कारण है कि वे लगातार यूरोप की युद्धोत्तर संवेदना को विश्व की सामान्य संवेदना के रूप में व्याख्यायित करने की कोशिश करते रहे हैं।" 10

कहानी के पात्र कहानी की सांकेतिकता तथा अदॄश्य यथार्थ को स्पष्ट ही नहीं करते बल्कि इसकी संवेदना को और भी अधिक तीव्रतम रूप में प्रस्तुत भी करते हैं। 'पिक्चर पोस्टकार्ड', 'सूखा', 'परिंदे', 'कव्वे और कला पानी' और 'धूप का टुकड़ा' जैसी कहानियों के पात्रों को देख कर ऐसा लगता है कि वे एक खामोशी को अपने अंदर धारण किए हुए किसी विशेष चिंतन में डूबे हुए अपना जीवन बिता देंगे। डॉ. नामवर सिंह का कहना है कि - "व्यथा की गहनता में निर्मल के पात्र प्रायः खामोश रहते हैं। उनकी खामोशी उनके व्यक्तित्व का एक अभिन्न अंग है। उनका मौन पियानों के अंदर का मौन है जिसकी एक-आध 'की' पर कभी-कभी लेखक की उँगली का हल्का-सा दबाव पड़ता है।" 11

निर्मल वर्मा की कहानी जिन तत्वों के कारण पाठकों को मोह लेती है, उनमें से एक मुख्य तत्व उनकी कहानियों के छोटे-छोटे ब्यौरे हैं। ये छोटे-छोटे ब्यौरे ही हैं, जिनसे वे लगातार एक काव्यात्मक जाल बुनते जाते हैं और पाठक उन ब्यौरों की चमक, सजीवता और प्रभाव में फँसता चला जाता है। इस काव्यात्मक ब्यौरे का एक सुंदर उदाहरण हम 'परिंदे' कहानी में देख सकते हैं - 'मुझे लगा, पियानो का हर नोट चिरंतन खामोशी की अँधेरी खोह से निकलकर बाहर फैली नीली धुंध को काटता, तराशता हुआ एक भूला-सा अर्थ खींच लाता है। गिरता हुआ हर 'पोज' एक छोटी-सी मौत है, मानो घने छायादार वॄक्षों की काँपती छायाओं में कोई पगडंडी गुम हो गई हो...'

निर्मल की कहानियों में छोटे-छोटे ब्यौरों की भी बड़ी महत्ता है। हिंदी में और किसी कहानीकार ने कहानी में छोटी-छोटी चीजों के ब्यौरों को इतना महत्व नहीं नहीं दिया है जितना निर्मल के यहाँ दिखता है। कारण यह है कि उनके लिए ये ब्यौरे कहानी कला की कोई तकनीक नहीं बल्कि स्वयं कला का मर्म है - 'दुनिया को समझने' वाली कला का मर्म - जिसकी चर्चा हम शुरुआत में ही कर आए हैं। इस सिलसिले में डॉ. वीरभारत तलवार का कहना है - "ये ब्यौरे किसी बड़े अनुभव-सत्य तक पहुँचने की कड़ियाँ - माध्यम - मात्र नहीं हैं, बल्कि अपने आपमें भी संपूर्ण हैं। कहा जा सकता है कि निर्मल की कहानी में ब्यौरे नहीं होते बल्कि ब्यौरों में कहानी होती है।" 12

व्यापक कलात्मक प्रयोग द्वारा निर्मल वर्मा ने यह प्रमाणित कर दिया है कि जो सबका अतिक्रमण करने की क्षमता रखता है, वही सबको सजीव चित्रों में रहने की सिद्धि भी प्राप्त करता है। वर्णनात्मक शैली का अभूतपूर्व प्रयोग कथा को बिल्कुल सजीव बना देता है। भाषा में नवजात शिशु सी सहजता और ताजगी है, वस्तुओं के चित्रों में पहले-पहले देखे जाने का अपरिचित टटकापन है। ठेठ वाचक शब्द, स्वतंत्र वाक्य, अलग-अलग देखने पर हर शब्द मामूली है, हर वाक्य साधारण है, लेकिन उनका पूरा प्रभाव जबर्दस्त है। बिंब निर्धारण और उपमा चुनाव से उनकी सूक्ष्म निरीक्षण वृत्ति और प्रखर कल्पना शक्ति का पता चलता है। यथा - 'डॉक्टर का सिगार अँधेरे में लाल बिंदी सी चमक रहा था।' (परिंदे) जब 'परिंदे' संग्रह पहली बार छपा था, तो कहा गया था कि इन कहानियों की जीवन स्थितियाँ 'इतिहास की विराट नियति बन कर खड़ी हो जाती हैं'13 और उन स्थितियों के सामने खड़े पात्रों की जुबान से निकला मामूली-सा वाक्य 'एक युगव्यापी प्रश्न बन जाता है।'1 4

अपनी कहानियों के माध्यम से निर्मल वर्मा व्यक्ति के अंदर लुप्त होते जीवन मूल्य को ही नहीं दिखाते, बल्कि व्यक्ति के जीवन को सूखा बना देने वाले जिम्मेदार तत्वों को भी उद्घाटित करते हैं। नामवर जी ने कहा है कि - "निर्मल की पैनी दृष्टि भली-भाँति देखती है कि एक प्रश्न है जिसका सामना आज का युवक भी कर रहा है और युवती भी। इसकी काली छाया एक ओर बेरोजगारी की शक्ल में दिखाई पड़ती है तो दूसरी ओर प्रेम के निजी क्षेत्र को भी ग्रस रही है। जीवन का यही व्यापक परिवेश-बोध है जिसके कारण निर्मल की प्रेम कहानियाँ नितांत प्रेम-कहानी न होकर जीवन की अन्य समस्याओं से जुड़ जाती है।"15

संदर्भ -

1. फिशर, अंर्स्ट, कला की जरूरत, अनुवाद - रमेश उपाध्याय, राजकमल प्रकाशन, 2011, पृ. 17

2. मिश्र, रामदरश, हिंदी कहानी : अंतरंग पहचान, वाणी प्रकाशन, 2007, पृ. 150

3. सिंह, विजयमोहन, आज की कहानी, राधाकृष्ण प्रकाशन, 2002, पृ. 65

4. सिंह, नामवर, कहानी नई कहानी, लोकभारती प्रकाशन, 2009, पृ. 56

5. सिंह, नामवर, कहानी नई कहानी, लोकभारती प्रकाशन, 2009, पृ. 52

6. तलवार, वीरभारत, सामना, वाणी प्रकाशन, 2005, पृ. 164

7. तलवार, वीरभारत, सामना, वाणी प्रकाशन, 2005, पृ. 174

8. श्रीवास्तव, परमानंद, आज की कहानी (लेख), नई कहानी : संदर्भ और प्रकृति, संपादक -देवीशंकर अवस्थी, राजकमल प्रकाशन, 2008, पृ. 130

9. सिंह, विजयमोहन, आज की कहानी, राधाकृष्ण प्रकाशन, 2002, पृ. 59

10. सिंह, विजयमोहन, आज की कहानी, राधाकृष्ण प्रकाशन, 2002, पृ. 60

11. सिंह, नामवर, कहानी नई कहानी, लोकभारती प्रकाशन, 2009, पृ. 60

12. तलवार, वीरभारत, सामना, वाणी प्रकाशन, 2005, पृ. 148

13. सिंह, नामवर, कहानी नई कहानी, लोकभारती प्रकाशन, 2009, पृ. 52

1 4. सिंह, नामवर, कहानी नई कहानी, लोकभारती प्रकाशन, 2009, पृ. 52

15. सिंह, नामवर, कहानी नयी कहानी, लोकभारती प्रकाशन, 2009, पृ. 62

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